दीपावली सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है। जब हम अपने घरों में दीये जलाते हैं, तो असल में वह प्रकाश बाहर के अंधकार से ज़्यादा, भीतर के अज्ञान को मिटाने के लिए होता है। हिन्दू संस्कृति में दीपावली का अर्थ सिर्फ लक्ष्मी पूजन तक सीमित नहीं है — यह “प्रकाश” के उस शाश्वत सिद्धांत का प्रतीक है जो सत्य, कर्म और ज्ञान से जुड़ा है।
पौराणिक रूप से दीपावली कई घटनाओं से जुड़ी हुई है — भगवान राम के अयोध्या लौटने से लेकर, भगवान विष्णु के नरकासुर वध तक, और महावीर स्वामी के निर्वाण से लेकर माँ लक्ष्मी के प्राकट्य तक। लेकिन इन कथाओं के भीतर एक समान सूत्र छिपा है — “अंधकार से प्रकाश की ओर”, यानी अज्ञान से जागरूकता की ओर यात्रा।
दीपक का प्रकाश हमेशा तब जलता है जब उसका तिल जलता है। यही जीवन का भी नियम है — जब तक हम अपने भीतर की स्वार्थ की बातों को नहीं जलाते, तब तक समाज में कोई सच्ची रोशनी नहीं फैल सकती। दीपावली हमें यही सिखाती है कि जीवन की सबसे बड़ी पूजा है — अपने भीतर के दोषों को समाप्त करना।
आज के समय में जब लोग इस पर्व को सिर्फ आतिशबाज़ी, सजावट और धन के प्रतीक के रूप में देखते हैं, तब इसकी असली आत्मा कहीं खोती जा रही है। दीपावली “धन” का नहीं, “धर्म” का पर्व है। यहाँ लक्ष्मी का अर्थ केवल रुपये–पैसे से नहीं है, बल्कि उस सम्पन्नता से है जो सद्बुद्धि, सत्य और परिश्रम से आती है। जिस घर में श्रम और सच्चाई होती है, वहाँ लक्ष्मी स्थायी रूप से निवास करती है।
कभी भारत में दीपावली सिर्फ घरों तक सीमित नहीं थी — यह पूरे समाज का पर्व हुआ करता था। गाँवों में हर वर्ग मिलकर दीपदान करता, मंदिर सजते, और हर व्यक्ति अपने पड़ोसी के घर जाकर मिठाई बाँटता। उस समय दीपावली “साझा खुशी” का प्रतीक थी, “प्रतिस्पर्धा” का नहीं। आज जब समाज अलग-अलग हिस्सों में बँटा हुआ है, तब इस त्योहार का असली उद्देश्य यही है कि हम फिर से जुड़ें — जाति, वर्ग या मत के आधार पर नहीं, बल्कि मानवता और धर्म के आधार पर।
दीपावली का एक और गहरा अर्थ है — आत्म-परीक्षण। राम का अयोध्या लौटना सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि यह संकेत है कि जब भी मनुष्य अपने भीतर के वनवास से लौटता है, तब दीप जलते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या और लालच जैसे अंधकार को त्यागता है, तभी भीतर की अयोध्या प्रकाशित होती है।
यह त्योहार हमें यह भी याद दिलाता है कि धर्म और विज्ञान साथ चल सकते हैं। जैसे दीपक का प्रकाश अंधकार को समाप्त करता है, वैसे ही ज्ञान का प्रकाश अंधविश्वास को मिटाता है। आधुनिक युग में जब तकनीक हर घर तक पहुँच चुकी है, तब भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि असली “प्रगति” वह है जो मनुष्य के भीतर का अंधकार मिटाए।
हमें यह भी समझना होगा कि दीपावली का उद्देश्य दूसरों से आगे निकलना नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलना है। इस दिन अगर हम सिर्फ अपने घर को ही सजाते हैं, तो आधा धर्म अधूरा रह जाता है। असली दीपावली तब होती है जब हम किसी गरीब के घर में भी रोशनी पहुँचा सकें।
आज का भारत बहुत आगे बढ़ चुका है — तकनीकी रूप से भी और सामाजिक रूप से भी — लेकिन अब ज़रूरत है आध्यात्मिक प्रगति की। दीपावली यही सिखाती है कि “समृद्धि” सिर्फ बैंक बैलेंस से नहीं, बल्कि संतुलित मन और सजग समाज से आती है। अगर हर व्यक्ति अपने जीवन में थोड़ी ईमानदारी, थोड़ी करुणा और थोड़ी अनुशासन लाए, तो पूरा समाज अपने आप प्रकाशित हो जाएगा।
इस दीपावली पर यह भी सोचिए कि हम क्या जला रहे हैं — दीया या दूसरों का धैर्य? अगर हम दूसरों की निंदा, ईर्ष्या और भेदभाव को जलाकर आगे बढ़ें, तो वही असली पूजा है। क्योंकि कोई भी धर्म तब तक जीवित नहीं रह सकता जब तक उसके अनुयायी आपस में विभाजित हों। हिन्दू धर्म की शक्ति उसकी विविधता में है, और दीपावली उस विविधता को जोड़ने का पर्व है।
तो इस बार जब आप दीया जलाएँ, तो केवल मिट्टी का नहीं, अपने मन का भी एक दीप जलाइए। जो अंदर बसे अहंकार और भेदभाव के अंधकार को मिटा सके। अपने आस-पास किसी ऐसे व्यक्ति की मदद कीजिए जो खुद दीप नहीं जला सकता। क्योंकि वही दीया, जो किसी और के अंधेरे को मिटाए — वही असली दीपावली है।
प्रकाश तब तक अधूरा है, जब तक वह सब तक न पहुँचे। यही दीपावली का संदेश है — “तमसो मा ज्योतिर्गमय” — अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, और भेदभाव से एकता की ओर।